चिकित्सा शास्त्र में ऐसे मंत्र लिखे हुए हैं, जिन से कई गंभीर रोगों का इलाज संभव है । आज के युग में इस शास्त्र में बताई गई भूत चिकित्सा का अलग स्थान है
अष्टांग आयुर्वेद का एक अंग है भूत-चिकित्सा । इसमें भूत अर्थात विषाणु जनित रोगों की चिकित्सा का विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है । भूत अर्थात विषाणु को आज चिकित्सा विज्ञान के नाम से जाना जाता है । इसमें भी विषाणु जनित रोग है, जिसकी औषधीय चिकित्सा आज भी कठिनाई से उपलब्ध हो पाती है । पर वैदिक व पौराणिक काल में इस तरह की चिकित्सा आयुर्वेदिक औषधियों तथा मंत्रों द्वारा सहज ही उपलब्ध थी ।
चिकित्सा शास्त्र ने कई रोगों को जटिल रोगों की श्रेणी में रखा है । आज वायरस जनित रोगों के रूप में जिन रोगों को पहचाना जा चुका है, उनमें लीवर से संबंधित हैप्पी टाइटस ए, बी, सी अदि, चिकिन पॉक्स, चिकिन गुनिआ अदि, गलगंड, फ्लू श्रेणी के कुछ रोग स्वाइन फ्लू आदि फाइलेरिया जैसे रोग प्रमुख हैं । इनके अलावा कुछ रोग ऐसे भी हैं, जो अनुकूल वातावरण मिलने पर तुरंत ही हमारे शरीर पर आक्रमण कर देते हैं ।
इनके अलावा कई रोग ऐसे हैं, जो सैकड़ों वर्ष के बाद जब प्रकट होते हैं, जब उनके विषाणुओं को अनुकूल मौसम तथा परिस्थिति मिलती है । हालांकि ऐसे विवरण वेदों, पुराणों, आयुर्वेदिक चिकित्सा शास्त्र, मंत्र शास्त्र आदि में मिलते हैं । विशेषकर मंत्र शास्त्रों में अनेक रोगों के लिए कई मंत्र लिखे गए हैं, जिनके उच्चारण से रोग दूर जाते रहते हैं । आज भी हमारे चारों ओर ऐसी बीमारियां हैं, जिनका इलाज मंत्रों से ही हो जाता है । ऐसे में मंत्र शक्ति का प्रभाव पूरी तरह दिखाई देता है । हालांकि पहले चिकित्सक औषधि के साथ मंत्रों का भी प्रयोग करते थे । इसलिए कई असाध्य रोगों का भी इलाज सफलतापूर्वक हो जाता था । वैसे भूत चिकित्सा में चिकित्सकों को पहले से यह ज्ञात रहता था कि विषाणु जनित रोगों में किस प्रकार की वन औषधि तथा किस तरह के मंत्र उपचार और किस तिथि, वार, नक्षत्र, योग व करण से बनने वाले विशेष योग में आरंभ करनी है अथवा किस योग मुहूर्त में इनमें से किस प्रकार के रोग की औषधि तैयार की जानी चाहिए ।
इसलिए चिकित्सा में आयुर्वेद एवं मंत्र शास्त्र का बराबर योगदान रहता था । अधिकांश विषाणु जनित रोगों के प्रमुख कारक ग्रह में शनि-राहु को विशेष प्रभावशाली माना गया है । इन कष्ट साध्य रोगों का विचार कुंडली में लग्न, षष्ट, अष्टम दोनों से, अष्ट मात अष्टम से अर्थात तृतीय भाव, एकादश व व्यय स्थान से किया जाता है । मुहूर्त चिंतामणि ऐसा ही एक ग्रंथ है, जिसमें चिकित्सा संबंधी कई मंत्र लिखे गए हैं और प्राचीन काल से इनसे कई रोगों का उपचार किया जाता रहा है । रोगों का उपाय, दवा निर्माण तथा भक्षण का मुहूर्त मुहूर्त चिंतामणि के मतानुसार इस तरह है
लघु संज्ञक, हस्त, अश्विनी पुष्य, मृदु- मृगशीर्ष, रेवती, चित्रा, अनुराधा, चरसंक्षक,स्वाती पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा और मूल नक्षत्र में तथा द्विस्वभाव में शुक्र, सोम, गुरु, बुध और रवि के दिन में लग्न से सातवे, आठवे व बारहवे भाव शुद्ध हो, जन्म नक्षत्र ना हो तथा शुभ तिथि में औषधि का सेवन व निर्माण करना श्रेष्ठ है । इसलिए इस सिद्धि मंत्र से अभिमंत्रित जल, कवच या ग्रहों के रत्नों को धारण करना कारगर उपाय माना जाता है । इस तरह की चिकित्सा विधि से केवल गंभीर माने जाने वाले रोगों नहीं, बल्कि शिशुओं को होने वाले विषाणु जनित रोगों का इलाज भी संभव है । कुल मिलाकर भूत चिकित्सा मानसिक एवं विष्णु जनित रोगों का सफल उपचार करने में कारगर है